‘संस्कृत’ का कश्मीर से अटूट नाता, कैसे?

भारत के इतिहास में जब कभी पुरातन भाषा की चर्चा होती है, तो निर्विवाद रूप से जिस भाषा का नाम आता है, वह है — संस्कृत। संस्कृत अध्ययन के पुरातन केंद्रों में वाराणसी और दक्षिण भारत के कांची और शृंगेरी जिस भूभाग का नाम सबसे पहले आता है, वह है कश्मीर। कश्मीर का पुराना संस्कृत नाम काश्मीर है, जो अब बदलकर कश्मीर हो गया है। कश्मीर को ‘शारदा देश’ के नाम से पुकारा जाता है। शारदा देश यानी माता सरस्वती का निवास स्थान। इन विशेषण से ही समझा जा सकता है कि कश्मीर में कितने विद्वानों का प्रादुर्भाव हुआ होगा।

कश्मीर भारत में एकमात्र राज्य है जहां अतीत में सबसे लंबे समय तक न सिर्फ पठन-पाठन बल्कि संपर्क भाषा के रूप में भी संस्कृत का इस्तेमाल हुआ। इंग्लैंड के भाषाशास्त्री जॉर्ज ग्रिअर्सन पिछली सदी के शुरुआत में एक दस्तावेज में लिखते हैं,‘बीते दो हजार सालों के दौरान कश्मीर संस्कृत के पठन-पाठन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां संस्कृत में दार्शनिक विमर्श से लेकर शृंगार कथाओं तक की रचना हुई।’

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सम्राट् अशोक (300 से 200 ईसा पूर्व) के समय कश्मीर घाटी में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। उस समय इस क्षेत्र में संस्कृत की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि तब जहां पूरे भारत में बौद्ध धर्म की मूल बातें पाली में लिखी गईं, वहीं कश्मीर में इसकी शिक्षाएं पहली बार संस्कृत में दर्ज हुईं। मध्य एशिया तक संस्कृत का प्रसार कश्मीरी विद्वानों ने ही किया था। उस समय न सिर्फ पूरे भारत से छात्र यहां संस्कृत पढ़ने आते थे बल्कि एशिया के दूसरे देशों के विद्वानों के लिए भी यह संस्कृत अध्ययन का बड़ा केंद्र था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कश्मीर में रहकर संस्कृत के माध्यम से बौद्ध धर्म का अध्ययन किया था।

संस्कृत व्याकरण के नियम बनाने वाले पाणिनि के बारे में ज्यादातर विद्वानों की राय है कि उनका जन्म ईसा से चौथी सदी पूर्व पाकिस्तान के खैबर पख्तून्ख्वा में हुआ था। लेकिन इतिहासकारों का एक वर्ग कहता है कि वे दक्षिण कश्मीर के गोद्रा गांव में जन्मे थे। यही कारण रहा होगा कि पाणिनि की अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण का प्राचीन ग्रंथ) पर सबसे ज्यादा टीका कश्मीर के विद्वानों ने ही लिखी हैं।

कश्मीर में संस्कृत 12वीं से 13वीं शताब्दी तक काफी प्रभावी रही। कल्हण का प्रसिद्ध ‘राजतरंगिणी’ ग्रंथ इसी समय की रचना है। प्राचीन भारतीय भाषाओं के अध्येता जॉर्ज बुहेलर (1837 से 1898) का एक दस्तावेज बताता है कि उन्होंने 1875 में कश्मीर की यात्रा की थी और तब उनकी 25 से ज्यादा संस्कृत बोलने वाले पंडितों से मुलाकात हुई और ऐसे दसियों सरकारी अधिकारी भी थे जो उस वक्त संस्कृत बखूबी समझ लेते थे। पिछली सदी में राजनीतिक उथलपुथल के चलते कश्मीर में इस भाषा के विकास पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।

पिछली शताब्दियों में यहां इस्लाम का प्रभाव बढ़ने लगा। ईराक से आए सूफी मीर सैय्यद शमसुद्दीन के प्रभाव से कश्मीर में इस्लाम मानने वालों की आबादी तेजी से बढ़ी। उसके बाद से क्षेत्र में संस्कृत का प्रभाव घटने लगा। पिछली सदी आते-आते कश्मीरी पंडितों में भी संस्कृत का ज्ञान रखने वाले नाममात्र के लोग ही रह गए थे।

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